Tuesday, June 25, 2013
अपनी सामाजिक संस्थाओ में क्या आपसी समन्वय संभव नहीं ?
अपनी
सामाजिक संस्थाओ में क्या आपसी समन्वय संभव नहीं ?
आज हमारे समाज में सामाजिक संगठनों की जैसे बाढ सी आगई है किसी ना किसी क्षेत्र में कोई ना कोई सामाजिक संगठन जरूर कार्य कर रहा है लेकिन सवाल यह उठता है कि आज हमारे समाज विशेष में अनेक पंजीकृत राष्ट्रीय, प्रादेशिक व क्षेत्रिय संगठन कार्यरत है क्या वे संगठन अपना दायित्व पूर्ण रूप से निभा रहे हैं और वे अपने संविधान व विधान के अनुरूप कार्य कर रहे हैं ? यदि ये संगठन ऐसा करने में असमर्थ है तो हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम उस अनियमित्ता का आंकलन करे और उसके सुधार के लिए आवाज़ उठाएं । प्राय: ऐसा देखने में आता है कि कुछ संगठन अपना दायित्व निभाने के बजाय केवल टिप्पणियां ही करते रहते हैं । जबकि वास्तिविकता में वे खुद भी उसका पालन नहीं करते हैं । लेकिन वे दूसरो से अपेक्षा करते हैं कि वे उसका पालन करें । ऐसा समाज व संगठन के लिए खतरा है । क्या इस प्रकार भी कोई समाज का भला हो सकता है । जब किसी सामाजिक संगठन का मुख्य व्यक्ति केवल अपनी कुर्सी को बचाने के लिए साम-दाम दण्ड भेद की नीति अपनाने से भी नहीं हिचकिचाता है ओर वह चाहता है कि वह उस संस्था का आजीवन मुखियां बनकर अपनी वाहवाही लूटने की फिराख़ में रहता है । लेकिन उसे इस बात का अहसास नहीं होता है कि वह इस स्वार्थ की भावना के पीछे समाज का कितना नुकसान कर रहा है । ऐसे संगठनो को चाहिए कि वे अपनी नीति और नियती दौनों में सुधार करे और समाज हित के बारे में सोचे उसी में उनका व समाज का भला है । नहीं तो आने वाली पीढ़ि उन्हें निश्चित ही दोषी ठहराएगी । आज हमारे संगठनों को स्वच्छ और दृढ़ रखना भी हमारी जिम्मेदारी है ।
जीवन में कुछ मुकाम या पद्दाव ऐसे आते है कि समाज को नूतन उधेश्य,नयी दिशा , मिल जाती है .जहाँ से सोच उभरती है ,गुजरती है समाज को नए अनुभव,चिंतन , आशाओ के सुमन अपना द्वार खोले खड़े प्रतीत होते है ..हर बिंदु में सिन्धु,हर पल में युग,प्रतीत होता है .. कितना सुखद हो सकता है यदि विभिन्न संगठन आपसी समन्वय से, सहकार,स्नेह से , समर्पण से ,अपने सत्कार्यो की समीक्षा करे और उस संगठन के साथ कंधे से कंधे मिला कर समाज में सेवा सुश्रुषा का भाव लिए अपनी तरफ से उस संस्था को समुचित योगदान प्रेषित कर उस सत्कार्य को सफलता के शिखर पर ले जाए .. आज कई संस्थाए एक विशेष कार्य में निपुण है और बड़ी ही कार्य कुशलता से समाज के तबको को साथ ले कर चलते हुए अपने लक्ष्य को बखूबी हासिल कर रही है .. पंजीकृत संस्थाए होना तथा पारदर्शिता बरतने की सख्त आवश्यकता है और दानदाता तथा सामाजिक सहयोग प्रदत्त करने वाले भी यह सुनिश्चित कर ले तो सोने में सुहागा हो जायेगा .. विशेष योजना के क्रियान्वन के लिए विशेष संगठन को दायित्व सौंप कर और आपसी सहमती,विचार विमर्श और चिंतन से बागडोर भी हमारे अपने किसी सरलमना .सुह्रदयी .समर्पित .सेवा भावी .सजग .सजीले .सदगुणी .सक्षम .संकल्पित और सकारात्मक सोच के धनी को कमान थमा दी जाए .. संगठन किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, वह सदैव अच्छा होता है- संगठन ही प्रगति का प्रतीक है, जिस समाज में संगठन होता है वहां सदैव शांति एवं सुख की वर्षा होती है . संगठन बहुत बड़ी उपलब्धि है, जहाँ संगठन है वहां कोई भी विद्रोही शक्ति सफल नहीं हो सकती है, जहाँ संगठन है वहां बहुत बड़ा बोझ उठाना भारी नहीं लगता । जहाँ संगठन है, एकता है वहां हमेशा प्रेम-वात्सल्य बरसता है- एकता ही प्रेम को जन्म देती है, एकता ही विकास को गति देती है । जो समाज संगठित होगा, एकता के सूत्र में बंधा होगा, वह कभी भी परास्त नहीं हो सकता- क्योंकि संगठन ही सर्वश्रेष्ठ शक्ति है, किन्तु जहाँ विघटन है, एकता नहीं है उस समाज पर चाहे कोई भी आक्रमण कर विध्वंस कर देगा ।
बड़ी ही प्रसन्नता होती है कि संगठित प्रयासों के बलबूते पर , समुचित जानकारी का संग्रहण और समावेश कर ,संबधित पक्ष और विपक्ष को विशवास में लेकर , किसी भी अहम् मसले पर सिधान्तो की लड़ाई लड़ी जा सकती है , बशर्ते मन में जज्बा त उज्जवल हो, लक्ष्य साफ़ द्रष्टिगोचर हो,तथ्यों से पूरी तरह वाकिफ हो,सकारात्मक सहयोग,समन्वय,सटीक टिप्पणियों से औत प्रोत वक्तव्य हो ,चिंतन की प्रवृति हो,सरकारी अधिकारिओं को वस्तु विषय की गहन जानकारी उपलब्ध कराने में पारंगतता हासिल हो ,मीडिया में समय -२ पर सटीक और सार्थक सामग्री का प्रकाशन कराया गया हो .बिना किसी लाग -लपेट के और राजनितिक मंशा से परे हटकर राजनीतिज्ञों को भी तथा प्रशासनिक पदेन हस्तिओ के साथ सुमधुर संबध हो और सही परिवेश और परिपेक्ष्य में उनतक बात पहुंचा पाए तो .धीरे-धीरे से ही सही पर अंत में सफलता नसीब हो सकती है . हम कतई आपा ना खोये , अधीर होकर किसी को कटु वचन न कहे , आपस में ना उलझे ,हम पदाधिकारियो के बीच के अंतर द्वंध को बाहर कदापि उजागर न होने दे , हमारेबिच स्वस्थ प्रतिद्वान्धिता सदेव रहे , मतभेद कभी मन-भेद में पल्लवित और पुष्पित ना हो ..इसका सदेव आभास रहे ..एक अकेला कुछ नहीं कर सकता .. संगठन में ही शक्ति है .. धैर्य,साहस,गहन चिंतन,मनन,लेखन,अनुसन्धान जारी रहे और संबधित जितने भी सहयोगी दल हो उनको विशवास में लेकर किया गया कार्य फलित होता है ..कोई भी पत्थर हथोड़े की एक चोट से नहीं टूटता तो इसका अर्थ कदापि यह नहीं कि वे प्रयास व्यर्थ हुए बल्कि उनसे पत्थर कमजोर होता गया , आखिर सत्कार्य साकार होना ही था .. नई पीढ़ी क़ी सोच भी व्यापक बदलाव को आतुर है और आशा ही नहीं पूर्ण ऐतबार है कि उनके संकल्पों क़ी बदौलत कुछ महत्वपूर्ण योजनाओं में ज्यादा दिलचस्पी बढ़ेगी ..युवाओं के लिए हर अवसर एक कांच की फूलदानी कि तरह है जो ना मालुम कब हाथ से फिसल जाए--या फिर कागज़ के एक पुडिया की तरह है कि कब पानी कि बूंद से यह गल जाए पर वे ज्यादा सतर्कता तथा बुजुर्गो के अनुभवी मार्गदर्शन में अपनी रोटी बराबर सेंक लेंगे..जरुरत है कि हम युवा सही दिशा में निरंतर आगे बढ़ते हुए समाज की दशा को बदलने में अपनी क्षमताओं की आहुति प्रदान कर संतोष सुख को प्राप्त करे..
सामजिक व्यवस्थाओ से जुड़े होने के कारण अन्य समाज एवं संघ के सदस्यों को हमसे अपेक्षाए होना स्वाभाविक है,जिस पर हमारा द्रष्टिकोण सुधारात्मक ह़ो, लचीलापन लिए हो तथा आमूल चुल बदलाव के लिए हो तो फिर कहना ही क्या . यदि हम सब मिलकर,अपनी-अपनी क्षमताओ का तड़का लगाकर ,इसी तरह जन हितार्थ चेष्टा कर सुप्रयांसो से समाज को नयी रोशनी दिखा सके तो हमारे अपनों के संबंधों में और प्रगाढ़ता आती रहेगी तथा तत्परता और लगन से समाज सफलता के शिखर की और अग्रसर होता रहेगा ..विश्व को आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले जगत गुरु भारत की सभ्यता,सलीका,संस्कृति,सम्मान प्रवृति का सारे विश्व में प्रचार - प्रसार का उत्तरदायित्व भी हमारा है ..समाज के उत्थान का आधार आध्यात्मिक शिक्षा है।भारत की सभ्यता और संस्कृति को जीवंत रखने के लिए संयुक्त परिवार या संयुक्त समाज की परिकल्पना को मूर्त रूप देना होगा तथा हम अपने संचित संस्कारो से सामूहिक कार्य प्रणाली को तवज्जो दे पाए तो हम ज्यादा गौरवान्वित और फलित बनेंगे .. ..विश्व का मंगल हो,प्राणी मात्रा का मंगल हो,सभी के उज्जवल भविष्य क़ी मंगल कामना शुभ भावों के दीये में जलाकर प्रेषित करते हुए हर जन के सहयोग,सानिध्य,स्नेह,सहकार क़ी भावना भाता हूँ..
प्रस्तुत है , युवा जैन कवी श्री पुनीत जैन ( जोधपुर ) की यह कविता
खुशकिस्मत हूँ कि मुझे जिन धर्म मिला है,
खुशकिस्मत हूँ कि तिर्थंकरों का पावन धाम मिला है !
इसकी अलग ही है आन-बान, जिन-धर्म है सबसे महान,
इसकी महानता मैं नहीं कहता, कहता सारा जहाँ !
संत-सती, श्रावक-श्राविका डोर है इसकी थामे रखते,
भटके हुए प्राणियों को सन्मार्ग की राह है दिखलाते !
आशीर्वाद हैं इसमें 24 तिर्थंकरो का,
शास्त्रों में सार हैं आगम-वेद-पुराणों का !
जिन-धर्म के सिद्धांतों को मान दो,
महावीर की वाणी को सम्मान दो !
गर्भ में आने पर माँ त्रिशला को 14 स्वप्न आये थे,
जन्म होने पर स्वर्ग में इन्द्रों की सिहांसन कम्पाये थे !
महावीर बड़े ही निराले वीर थे,
अपनी वाणी के धीर-गंभीर थे !
जिन-धर्म मिल नहीं सकता बाजारों में,
यह तो मिलता हैं उच्च विचारों से !
शरणागत के कर्मो को तोड़ देता हैं,
मोक्ष की राह से यह जोड़ देता हैं !
जिन संतो की महिमा बड़ी निराली है,
सत्य-अहिंसा की पुष्प सींचे, ऐसे वो माली हैं !
रे मानव ! जाने-अनजाने करता तू बहुत कर्म है,
खुशकिस्मत हैं हम, जो मिला यह जिन धर्म है !
मानव जन्म को यूँ न बर्बाद करो,
धर्म-आराधना कर आत्मा का कल्याण करो !
विशेष आदर सहित........
प्रत्यक्ष ओर अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने वालों को धन्यवाद..
जैन सज्जन राज मेहता
सामाजिक कार्यकर्ता..
098455O1150
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