Sunday, August 30, 2015
सल्लेखना/संथारा आत्म हत्या नहीं अपितु अन्त समय तक धर्म साधना करना है
माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र जी मोदी
भारत सरकार
दिल्ली
सादर अभिवादन जी
आत्मा और आस्था जैसे ज्वलंत धार्मिक विषय पर मात्र कानूनी दलीलों पर ही विश्वास ना करके- प्रज्ञा के विषय पर धर्माचार्यों की भी सुनी जानी चाहिए थी ,किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पूर्व ।
सल्लेखना/संथारा आत्म हत्या नहीं अपितु अन्त समय तक धर्म साधना करना है ।सल्लेखना/संथारा के मूल सिद्धान्त प्रक्रिया व उद्देश्य को समझे बिना माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में पारित निर्णय संपूर्ण जैन धर्मावलम्बियों की धर्म साधना पर गंभीर आघात हैं। अनादि-अनन्त समय से स्थापित जैन धर्म एक अत्यन्त वैज्ञानिक धर्म है। जैन धर्म के सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव व प्रकृति पर भी किसी भी प्रकार की हिंसा की भावना का भी कोई स्थान नहीं है। जैन धर्मावलम्बी स्वयं पर अथवा किसी अन्य पर किसी प्रकार की हिंसा नहीं करते एवं आयु पर्यन्त अनुशासित जीवन जीते हैं।
एक जैन साधक आयु पर्यन्त अपनी आत्मा की शुद्धि व कर्मो की निर्जरा के लिये साधना करता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 व 25 में प्रत्येक भारतीय को अपने धर्म की पालना के साथ जीवन जीने का पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु होना एक शाश्वत सत्य है। नश्वर शरीर के शिथिल होने की स्थिति में जीवन के अन्तिम क्षण तक धर्म साधना के साथ जीना ही सल्लेखना/संथारा है। मृत्यु की कल्पना से विचलित होने के स्थान पर अन्तिम सांस तक धर्म साधना करना, भारत के किसी भी कानून में निषिद्ध नहीं है। ऐसी धर्म साधना को आत्म हत्या या कुप्रथा के नाम पर प्रतिबंधित करने का आदेश जैन धर्मावलम्बियों के मूल अधिकारों का हनन है, जिसे जीओ और जीने दो के मूल सिद्धान्त के साथ जीवन जीने वाले अल्पसंख्यक, अहिंसक व शान्तिप्रिय जैन धर्मावलम्बी किसी भी अवस्था में बर्दाश्त नहीं कर सकते और उसका घोर विरोध करते हैं।
सल्लेखना/संथारा की धर्म साधना करने का उद्देश्य जीवन को समाप्त करने का नहीं होता, उसे ना तो आत्म हत्या का प्रयास कहा जा सकता है और ना ही इच्छा मृत्यु की संज्ञा दी जा सकती हैं।
> सल्लेखना/संथारा एक व्रत है जिसे साधक स्वयं अपनी इच्छा के अनुरूप व अपने सामथ्र्य के अनुसार धर्मशास्त्रविहित प्रक्रिया के अनुरूप धारित करता है ।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 में धर्म स्वीकार करना, धार्मिक प्रवृत्ति/व्यवहार करना तथा धर्म प्रचार करना प्रत्येक भारतीय का मूल अधिकार हैं। अतः सल्लेखना/संथारा जैसी धार्मिक क्रिया को जैन धर्मावलम्बियों के संवैधानिक अधिकार में स्वीकार किया जाना चाहिये।
अतः समस्त जैन समाज की ओर से निवेदन है कि जैन धर्मावलम्बियों को संविधान में संरक्षित उनके मौलिक अधिकार से वंचित करने की कोई कार्यवाही किसी भी स्तर पर ना की जाए ।
आदर सहित
सादर जय जिनेन्द्र
जैन सज्जन राज मेहता
पूर्व अध्यक्ष
जैन युवा संगठन
सदस्य-जीतो
बैंगलोर
09845501150
Wednesday, August 19, 2015
letter to hon'ble prime minister sent on santhara
आत्मा और आस्था जैसे ज्वलंत धार्मिक विषय पर मात्र कानूनी दलीलों पर ही विश्वास ना करके- प्रज्ञा के विषय पर धर्माचार्यों की भी सुनी जानी चाहिए थी ,किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पूर्व ।
सल्लेखना/संथारा आत्म हत्या नहीं अपितु अन्त समय तक धर्म साधना करना है ।सल्लेखना/संथारा के मूल सिद्धान्त प्रक्रिया व उद्देश्य को समझे बिना माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में पारित निर्णय संपूर्ण जैन धर्मावलम्बियों की धर्म साधना पर गंभीर आघात हैं। अनादि-अनन्त समय से स्थापित जैन धर्म एक अत्यन्त वैज्ञानिक धर्म है। जैन धर्म के सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव व प्रकृति पर भी किसी भी प्रकार की हिंसा की भावना का भी कोई स्थान नहीं है। जैन धर्मावलम्बी स्वयं पर अथवा किसी अन्य पर किसी प्रकार की हिंसा नहीं करते एवं आयु पर्यन्त अनुशासित जीवन जीते हैं।
एक जैन साधक आयु पर्यन्त अपनी आत्मा की शुद्धि व कर्मो की निर्जरा के लिये साधना करता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 व 25 में प्रत्येक भारतीय को अपने धर्म की पालना के साथ जीवन जीने का पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु होना एक शाश्वत सत्य है। नश्वर शरीर के शिथिल होने की स्थिति में जीवन के अन्तिम क्षण तक धर्म साधना के साथ जीना ही सल्लेखना/संथारा है। मृत्यु की कल्पना से विचलित होने के स्थान पर अन्तिम सांस तक धर्म साधना करना, भारत के किसी भी कानून में निषिद्ध नहीं है। ऐसी धर्म साधना को आत्म हत्या या कुप्रथा के नाम पर प्रतिबंधित करने का आदेश जैन धर्मावलम्बियों के मूल अधिकारों का हनन है, जिसे जीओ और जीने दो के मूल सिद्धान्त के साथ जीवन जीने वाले अल्पसंख्यक, अहिंसक व शान्तिप्रिय जैन धर्मावलम्बी किसी भी अवस्था में बर्दाश्त नहीं कर सकते और उसका घोर विरोध करते हैं।
सल्लेखना/संथारा की धर्म साधना करने का उद्देश्य जीवन को समाप्त करने का नहीं होता, उसे ना तो आत्म हत्या का प्रयास कहा जा सकता है और ना ही इच्छा मृत्यु की संज्ञा दी जा सकती हैं।
> सल्लेखना/संथारा एक व्रत है जिसे साधक स्वयं अपनी इच्छा के अनुरूप व अपने सामथ्र्य के अनुसार धर्मशास्त्रविहित प्रक्रिया के अनुरूप धारित करता है ।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 में धर्म स्वीकार करना, धार्मिक प्रवृत्ति/व्यवहार करना तथा धर्म प्रचार करना प्रत्येक भारतीय का मूल अधिकार हैं। अतः सल्लेखना/संथारा जैसी धार्मिक क्रिया को जैन धर्मावलम्बियों के संवैधानिक अधिकार में स्वीकार किया जाना चाहिये।
अतः समस्त जैन समाज की ओर से निवेदन है कि जैन धर्मावलम्बियों को संविधान में संरक्षित उनके मौलिक अधिकार से वंचित करने की कोई कार्यवाही किसी भी स्तर पर ना की जाए ।
आदर सहित
सादर जय जिनेन्द्र
जैन सज्जन राज मेहता
पूर्व अध्यक्ष
जैन युवा संगठन
सदस्य-जीतो
बैंगलोर
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